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उजाले के मुसाहिब

विजयदान देथा

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1381
आईएसबीएन :81-263-0520-7

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विजयदान लोक कहानियों की सूरत में कहानी बयान करते हैं और बीच में कहीं एक स्तर पर वह ऐसी बात कह जाते है कि कहानी का सारा आयाम बदल जाता है। वह एकदम आज की कहानी हो जाती है।

Ujale Ke Musahib

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पुनश्च

प्रिय शिवप्रसाद पालीवाल,
‘महामिलन’ उपन्यास की भूमिका के निमित्त तुम्हें सम्बोधित करके पत्र लिखा था—16 जुलाई, 1998, बुधवार को। आज दुबारा पुनश्च के रूप में तुम्हें फिर सम्बोधित कर रहा हूँ। एक बात तुमने भी नोट की होगी कि हर किसी पत्र में, चाहे वह भूमिका के निमित्त हो, चाहे सामान्य पत्राचार के लिए, तारीख के साथ वार भी लिखता हूँ। कभी नहीं चूकता। कोई इसकी वजह पूछे तो मैं बता नहीं सकता। आदत की मजबूरी शायद सही जवाब नहीं है। मेरे खयाल से किसी भी मनोवैज्ञानिक का विश्लेषण इसका सही मायना नहीं बता सकता। अनुमान लगा सकता है। टिप्पे मार सकता है। यह भी संभव है कि उसके अनुमान को आत्म-निर्देशन की प्रक्रिया के तहत मैं भी स्वीकार कर लूँ। पर वह सच्चाई से भिन्न होगा। दूर भी होगा। खैर, जो होगा सो होगा।

करीब दो दशक पहले मुझे अच्छे कवि की, अच्छे कथाकार की, अच्छे प्रवक्ता की या अच्छे विद्वान् की आन्तरिक तलाश रहती थी। उनके सम्पर्क से बड़ा सुकून मिलता था। उनसे कैसी भी गपशप के लिए मन लालायित रहता था। उनका सत्कार करने में कमोबेश गर्व का अनुभव होता था। जिनसे मन मिले, उन्हीं के साथ उठना बैठना ही तो नितान्त स्वाभाविक है। इसी आशय की एक मसल भी मशहूर है कि समान पंखोंवाले पाखी साथ उड़ते हैं। इस संस्कारित अभिरुचि में मन का तादात्म्य जुड़ जाए तो कहना ही क्या  आत्मा भी पुलकित होने लगती है। पुराने संस्कार आसानी से छूटते नहीं। तिस पर स्वयं भी तो एक अध्येता और साहित्यकार हूँ। और किससे बतियाऊँ, ले-देकर शिरोधार्य करने योग्य यही तो संगति है। मण्डली है। आदत का दबाव भी प्रकृति-प्रदत्त प्रवृत्ति से कम महत्त्वपूर्ण नहीं होता।

पोथियों के अटूट साहचर्य और कुछ-न-कुछ लिखते रहने के बावजूद आजकल समय की तंगी महसूस करने लगा हूँ। और यों दिन भी छोटे होने लगे हैं। फिर राजस्थान विद्युत-मण्डल की बिजली अल्ल-सवेरे या रात को कब अन्तर्धान हो जाए और वापस कब उसका दर्शन-लाभ हो, कुछ निश्चित नहीं। बिजली देने की अनुपालना के बदले उसकी कटौती करने में मण्डल के अधिकारियों को कुछ ज्यादा ही आनन्द मिलता है। किसी की हरदम पूछ होती रहे तो दम्भ होना सामान्य बात है। बिजली की आँख मिचौनी से सूर्य के प्रकाश का माहात्म्य समझ में आने लगा है। गाँव में तो अपने-आप की एकलौती उपस्थिति से समय चुटकियों में उड़ जाता है। अकेले रहने की आदत बना ली है। पर गाँव के बाहर अकेले रहना पर्याप्त नहीं लगता। अखरता है। सब काम छोड़कर फोन दनदनाता हूँ। उन्मुक्त महसूस करता हूँ। हँसी-मजाक के नये-नये बिन्दु खोजता हूँ। तैयार होकर प्रत्यक्ष संपर्क के लिए छटपटाने लगता हूँ। आन्तरिक उमंग चन्द्रलोक की यात्रा के मुकाबले बीस ही होगी उन्नीस नहीं। गाँव के बाहर लिखना तो होता ही नहीं और रात को बिना पढ़े नींद नहीं आती, सो मन का तारतम्य बैठ जाता है।

पुरानी बातें, पुराना शहद, पुरानी शराब और पुराने मित्र तो अच्छे लगते ही हैं। उनकी झलक मात्र से ही मन खिल उठता है, इसमें कोई संदेह नहीं। पर इन दिनों एक नयी कलम अंकुरित होने लगी है, कहूँ की एक आदत और जुड़ने लगी है कि कोई व्यक्ति विशुद्ध मर्मज्ञ रहकर किसी न किसी सृजक के प्रति अनुरक्त हो एवं परिजनों की अपेक्षा साहित्यकारों की संगति से स्वयं अधिक उन्मुक्त महसूस करें तो उसके साथ रहने में मुझे खूब परितृप्ति मिलती है। तुम्हारा अनुमान बिलकुल सही है कि राम निवास जी कर्वा को ही लक्ष्य करके मैंने यह बात कही है। जिन्हें अब तुम भी बाखूबी जानने लगे हो। लेकिन शुरुआत में उनसे मेरा पहला परिचय पत्र के द्वारा ही हुआ। पिक्षले वर्ष राजस्थान पत्रिका में मेरी कहानियाँ पढ़कर अनेक पाठकों के पत्र मुझे मिलते रहे हैं। एक पत्र उनका भी मिला। पाठकों की प्रतिक्रिया के स्तम्भ की खातिर प्रकाशनार्थ भेजा था-11 मई, 1998 को। पत्रिका कार्यालय ने वही मूल प्रति मुझे प्रेषित कर दी। संपादक को आभार प्रदर्षित करते हुए मुझे साधुवाद भिजवाया था। अन्य पाठकों की तरह उन्हें भी धन्यवाद का पोस्टकार्ड लिखा। राजस्थानी-हिन्दी कहावत-कोश की खातिर समय बचाने की नीयत से पोस्ट-कार्ड लिखने की आदत डालनी पड़ी। वरना इससे पहले बड़ी लम्बी-लम्बी चिट्ठियाँ लिखता था। पोस्ट-कार्ड के बेपर्दा समाचार मुझे अच्छे नहीं लगते थे।

लौटती डाक से उनका जवाब आया कि आसाम प्रवास के दौरान उन्होंने ‘रूँख’ की कुछेक प्रतियाँ बाँटी थीं, अब उनके पास एक भी प्रति नहीं है। पाँचेक प्रतियाँ और खरीदना चाहते हैं। ‘चौधराइन की चतुराई’ की दो पुस्तकें वी.पी.पी.से भेज दूँ या निकट भविष्य में जयपुर आना हो तो साथ ले आऊँ। ऐसी कोई जल्दी नहीं है। कुछ ही दिन बाद जयपुर का कार्यक्रम बन गया तुम्हें मालूम ही है कि तब डाक-बँगले में ठहरता था। नहा-धोकर उनसे मिलने गया। उनकी आवाज सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ रे शिव  बम्बई के हास्य-कवि रामरिख मनहर से उनकी बोली में बड़ा साम्य है। रामरिख की बुलन्द आवाज में अलमस्ती थी और ये काफी धीमे बोलते हैं।

इधर मैंने प्रतियाँ सौंपीं और वे चटपट तेजी से भीतर गये और रुपये लेकर आ गये। बाद में पता चला कि ढील उनके स्वभाव में ही नहीं है। उस पहली मुलाकात के बाद मैं उनके आत्मीय आग्रह की अवहेलना नहीं कर सका। जब भी जयपुर जाता, उन्हीं के यहाँ ठहरता। और ठहरना भी कैसा, तुम स्वयं अपनी आँखों से देख चुके हो-बिलकुल अनौपचारिक। घर से भी कुछ बेशी अपनापन। महज इसलिए कि मेरी रचनाएँ उन्हें पसन्द हैं और सम्मान में जाने-अजाने कोई त्रुटि न रह जाए, जिसके लिए उनका ऐसा सहज व्यवहार। किसी भी प्रकार की कृतिमता का रंचमात्र भी आभास नहीं। इस रिश्ते को कैसे परिभाषित किया जाए  आसन्न प्रभाव ग्रहण करे जैसी उनकी अपरिपक्व उम्र भी नहीं है। साठ से चार-पाँच बरस ऊपर ही होगी। भाभी या उनकी बहूरानी एक-एक चपाती गरम-गरम लातीं। सारी परोसगारी अपने हाथों से करतीं, जैसे उन्हीं के घर का बुजुर्ग सदस्य होऊँ। बात-चीत में धीरे-धीरे ज्यादा खुल गये तो उन्होंने सरल, सादी वाणी से बतलाया कि वे कई बरसों से शाम को फलाहार ही करते हैं। मेरा अकेले खाना उन्हें अच्छा नहीं लगा तो साथ बैठ गये। कोई पुख्ता नियम नहीं है। बाद में तो वे मेरे साथ फलाहार भी करने लगे।

बात खाने की नहीं है रे शिव  कोमल के यहाँ बरसों से उसके साथ बैठकर खाता रहा हूँ। कोई दुराव नहीं। कोई पाँच-सात नहीं, पचासों ऐसे मित्र हैं जिनके यहाँ पारिवारिक सदस्य की नाईं प्रेम का प्रसाद पाता रहा हूँ। लेकिन यहाँ लेखक और पाठक का सम्बन्ध नहीं है। मैत्री का प्रगाढ़ सम्बन्ध है। मित्रता सर्वोपरि है, खाना गौण है। मित्र के यहाँ तो कारण-अकारण भूखा भी रहा जा सकता है। जिसका मुकाबला पाँच पकवान भी नहीं कर सकते। भक्ति से भी कोई ऊँचा रिश्ता है तो वह दोस्ती का है। रामनिवास जी मेरे मित्र नहीं हैं। परिजन भी नहीं हैं। वे विशुद्ध मर्मज्ञ हैं और मेरी कृतियाँ उन्हें पसन्द हैं। मेरे ‘सबदों’ से उन्हें सौंदर्य का बोध होता है। और यही लेखक के लिए सर्वोच्च पुरस्कार है। इसी पुरस्कार से मैंने अपने गुरुओं का समादृत किया है और यही पुरस्कार मैंने अपने पाठकों से पाया है। जीते-जी पाया है। यही मेरे जीवन की एक मात्र सिद्धि है। और कोई समझे न समझे, तू मुझे गलत नहीं समझेगा, बस, मेरे लिए यही परितुष्टि पर्याप्त है। अपनी वीरभूमि राजस्थान में शब्दों का यह रिश्ता स्वप्न की तरह विस्मयकारी है-उसी का तो रोना है रे शिव  खाने का क्या गुरुद्वारों के लंगर में भी मिलता है, भीख व गोचरी से भी प्राप्त होता है। पेट भरने के लिए तो वह काफी है। पर उससे मन नहीं भरता। पैसे लेकर होटल वाले खिलाते ही हैं, वहाँ सिर्फ पैसों का रिश्ता है। लाभ की मुस्कराहट है। क्यों रे शिव, रुपया तो जरूरत का साधन ही है न उसे खुशी का माध्यम बनाना तो एक विकृति है। अपने प्रान्त में जहाँ नब्बे प्रतिशत लोगों को लेखक के रूप में परिचय दिया ही नहीं जा सकता, वहाँ एक छोटे-मोटे व्यवसायी के द्वारा लेखक के प्रति यह भावना  शब्दों का ऐसा सम्मान  राजस्थान की सूखी पहाड़ियों पर बर्फ जमने जैसा अविश्वसनीय आश्चर्य है  मुझसे सम्बन्धित होने पर भी बात मेरी नहीं है, मैं तो एक निमित्त मात्र हूँ। उच्चतम डिग्रियों के बावजूद मेरी दृष्टि में वही व्यक्ति पढ़ा लिखा है, जो वस्त्र और जूतों जैसी अनिवार्यता महसूस करके, पुस्तकें भी खरीदे, पढ़ने के आनन्द की खातिर खरीदे। इस आनन्द-प्राप्ति का कोई अन्य विकल्प नहीं है। पढ़ना-लिखना जीविकोपार्जन तक सीमित न रहकर व्यक्तित्व निर्माण का माध्यम बने तभी शिक्षा की सार्थकता है। मौखिक रूप से कई बार मैं तुम्हें इस घारणा से अवगत करा चुका हूँ।

तुम्हारे बारे में रामनिवास जी से चर्चा की तो तुम्हें भी वहाँ ठहरने का आग्रह किया। चार-पाँच बार तुम मेरे साथ ठहरे भी। बताओ, कहीं भी तुम्हें अजनबीपन या परोक्ष अवज्ञा का भाव महसूस हुआ खाने के बाद पचाये हुए आँवले या घर का बना चूर्ण मौजूद खुद लाते और खिलाते। साथ में डिबिया भर का सँभला देते। सवेरे उठूँ तो पलंग पर अखबार मौजूद। कपड़े धुलवाने की चिन्ता न्यारी। सवेरे जल्दी खाने की आदत है। जब चाहूँ तब भोजन तैयार। बाहर जाऊँ तो सड़क पर छोड़ने आते हैं। कहीं कोई दिखावा नहीं है। बड़ी-बड़ी बातों में तो सभी सतर्क रहते हैं। लेकिन छोटी-छोटी बातों का ध्यान रख पाना आसान नहीं है। अपने मानस का अदीठ अवचेतन भी अकिंचन बातों के प्रति जाने या अजाने उदासीन रह जाता है।

बरसों से डिबरूगढ़ में व्यवसाय-व्यापार का पुश्तैनी धंधा रहा है। करीब दो साल से जयपुर रहने लगे हैं। तुम्हारे सिवाय किसी अन्य मित्र का इनसे परिचय नहीं कराया। जानता था कि कई लक्षण समान होने की वजह से तुम दोनो में खूब घुटेगी, सो घुट ही रही है। पुस्तकों का आदान-प्रदान हो रहा है। जयपुर से चौमू और चौमू से जयपुर बात होती रहती है। निश्छल भले-मानुसों सहज ही आत्मीयता हो जाती है। कुटिल या छल-प्रपंच वाले मनुष्य एक दूसरे से सावचेत रहते हैं। आज यह स्थिति है कि तुम उनकी तारीफ करते थकते नहीं। और वे भी उचित अवसर पर प्रशंसा करने लगते हैं। तुम्हारी तरह उन्हें अधिक बोलने का शौक नहीं है। एक आध बार उत्साह के आवेग में तुमने यह भी कह डाला कि मेरे मित्रों में रामनिवास जी की होड़ करने वाला कोई नहीं है। मेरे सब मित्रों को तुम जानते नहीं हो। और यों किसी से तुलना करनी भी नहीं चाहिए। मेरे सभी मित्र एक-से एक आला हैं। कोई तुम्हें नहीं जानता और तुम कइयों को नहीं जानते।
एक बात तुम्हारे ध्यान में भी आयी होगी कि रामनिवास जी सवेरे जल्दी उठते हैं। खुद ही बाहर से अखबार लाते हैं। सुबह की चाय भाभी अपने हाथ से बनाती हैं, नौकरों को नहीं जगातीं, जैसे यह उनका नित-नेम ही हो। यों ही बातचीत में पता चला कि नौकर दिनभर काम करते हैं। देर रात तक टी.वी. देखते हैं। लड़कों को तो नींद आती ही है। जहाँ तक संभव हो स्वावलंबी होना अच्छा ही रहता है। नौकरों के बिछाने और पहनने के कपड़े साफ-सुथरे और साबुत हैं। गृहस्वामी या ग्रहलक्ष्मी की यहीं खरी पहचान होती है कि वे नौकरों के प्रति कितने सहृदय और मानवीय हैं।

नीचे की मंजिल में मेरे लिए एक बड़ा-सा कमरा आरक्षित है। निहायत आरामदायक और स्वच्छ। जरूरत की हर चीज उपलब्ध। एक बार उन्होंने एम. एन. राय की पुस्तक लाकर दी तो अन्य पुस्तकें देखने की उत्सुकता रोक नहीं पाया। वे चप्पल फटकारते हुए आगे-आगे और मैं उनके पीछे-ऊपर वाले कमरे में आये। पुस्तकें तरतीब से जमी हुई नहीं थीं। बड़े-बड़े लेखकों का अंबार लगा था-बर्नाड शॉ, हक्सले, वर्ड्सवर्थ, डिकंस, तॉलस्तॉय, दोस्तोयेवस्की, अन्तोन चेखोव, अनातोले फ्रांस, रोमाँ-रोलाँ इत्यादि। मैं विस्फारित आँखों से एक-एक पोथी टोह रहा था कि उन्होंने ब्रेडले की ‘ट्रेजेडीज ऑफ शेक्सपीयर्स प्लेज’ बाहर निकाल कर अपना मन्तव्य प्रकट किया कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर, शरतचन्द्र, प्रसाद और प्रेमचन्द्र को समझने के लिए ब्रैडले जैसे सूक्ष्मदर्शी आलोचक की दृष्टि चाहिए, अन्यथा उनका मर्म पूरी तरह हृदयंगम नहीं होता। मैं अवाक्, उनकी ओर देखता रह गया। एक मध्यम व्यवसायी के मुँह से ऐसी असामान्य बात सुनकर मुझे खुशी भी हुई, ईर्ष्या भी हुई मैंने ब्रैडले का यह महत्त्व नहीं समझा। मैंने जानना चाहा कि और भी कहीं पुस्तकें पड़ी हैं क्या तब उन्होंने बताया कि यहाँ तो बहुत थोड़ी हैं, बाकी सब तो डिबरूगढ़ ही पड़ी हैं। आजकल दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक पुस्तकों की ओर उनकी अभिरुचि बढ़ रही है।

सीढ़ियाँ उतरते हुए उन्होंने कहा, अच्छी किताबें पढ़ने का शौक मुझे पिता जी से विरासत में मिला है। वे बंगाली लेखकों को बहुत पढ़ते थे। उन्हीं के आग्रह पर मैंने बंगाली सीखी। मूल बंगला में बंकिमचन्द्र, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, शरतचन्द्र, ताराशंकर, विमल मित्र और महाश्वेता देवी को पढ़ने का आनन्द ही कुछ और है। राजस्थानी और हिन्दी में लेखकों का नहीं, प्रबुद्ध पाठकों का आभाव है। फलस्वरूप लेखन में भी एक प्रकार की जड़ता और ठहराव व्याप्त हो रहा है। अच्छे लेखन के लिए अच्छे पाठकों की भागीदारी से इन्कार नहीं किया जा सकता। और जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से लेखक व पाठक आर्विभूत होने चाहिए। केवल विश्वविद्यालयों के परिसर, पत्रकारिता प्रांगण और साहित्य जगत् की सीमा में ही परिबद्ध न हों तो स्थिति स्वस्थ ऊँचाइयों की ओर अग्रसर हो सकती है, अन्यथा आत्मवंचना, आत्मश्लाघा, आत्मकुण्ठा और बौद्धिक मैथुन की विकृतियाँ उत्पन्न होने लगती हैं।

मेरा परिचय तो इनसे अभी-अभी हुआ है, वरना वे तो बरसों से श्रेष्ठ साहित्य का परायण करते रहे हैं।
जिस तरह मेरे मन में कोई बात उठे तो मैं तत्काल सक्रिय हो जाता हूँ, ठीक वैसी ही आदत रामनिवास जी कर्वा की है। आलस्य-वश आगे टालने की प्रवृत्ति को वे पास ही नहीं फटकने नहीं देते। अब धंधा बिलकुल छोड़ रखा है। इकलौता बेटा संदीप ही सारा काम-काज देखता है। पुस्तकें और पत्रिकाएँ पढ़ने के अलावा बागवानी का शौक है। सारा बगीचा सुबह-शाम अपने हाथ से पिलाते हैं। नियमित रूप से बी.बी.सी. और आकाशवाणी की खबरें सुनते हैं। छोटा-सा जेबी रेडियो है। अँग्रेजी-हिन्दी अखबारों में मेरे पढ़ने योग्य सामग्री हो तो रेखांकित करके भेज देते हैं। पत्रों के जवाब में मेरी ओर से देर हो तो हो, वे लौटती डाक से प्रतिउत्तर देते हैं। समझ रहे हो शिव, यह गुण अपनाने की तुम्हें सख्त जरूरत है। पर अपना नहीं सकोगे। किसी न किसी औचित्य का बहाना खोजने में पारंगत हो न  देशी दवाइयों की भी इन्हें थोड़ी बहुत जानकारी है। मधुमेह, प्रोस्टेट और जुकाम खाँसी का नुस्खा मेरे लिए भेजते रहते हैं, पर मैं उनका सदुपयोग नहीं कर पाता। कभी-कभार एक ही डाक में तीन-तीन पत्र मिल जाते हैं। नयी बात याद आयी नहीं और पत्र लिखा नहीं। आजकल हम अपनी जरूरत और दायरे में इस तरह उलझे रहते हैं कि अपने साथ भी अच्छी तरह तालमेल नहीं रख पाते। दूसरों के लिए सोचने व समय खर्च करने की वेला ही किसे है अपने घर-परिवार की लक्ष्मण-रेखा से बाहर सोचना समझना और अपने स्वार्थ के खातिर दौड़ भाग करने के अलावा इस तरह का आचरण असंभव नहीं तो दुर्लभ अवश्य है इक्कीसवीं सदी के मध्य तक ऐसे बावरे लोगों की कल्पना तक दुश्वार हो जाएगी। तुम्हें भी तो इस तरह की पर-सेवा में कई बार तन्मय देखा है। मेरे स्वभाव की इसी प्रतिच्छवि के कारण तुमसे आत्मीयता बढ़ी है। आज अपनी ढ़लती उम्र के मुहाने पहुँचकर मुझे स्वयं विश्वास नहीं होता कि अध्ययन-सृजन की बजाए मैंने अपने जीवन का ज्यादा समय इसी बावरेपन में गुजारा है, जिसके दुष्परिणाम अब असह्य होने लगे हैं।

प्रत्यक्ष संपर्क के पहले अर्थाभाव के कारण अपनी पुस्तकों का मूल्य स्वीकार कर लेता था। लेकिन आत्मीयता बढ़ने पर मैंने उपहार स्वरूप पुस्तकें देनी चाहीं तो उन्होंने शालीनता पूर्वक मना कर दिया। अपने पिता जी की सीख के मुताबिक लेखकों से निःशुल्क किताबें लेना गुनाह है। साहित्यकारों की साधना का अन्य खामियाजा चुकाएँ-न-चुकाएँ, मगर उनकी कृतियाँ तो खरीद कर ही पढ़नी चाहिए। बहुत मामूली बात है रे शिव, जो आज कितनी अव्यावहारिक प्रतीत होती है। इसीलिए इसे दर्ज करना अनिवार्य हो गया ।
मेरे नवीनतम प्रकाशन-सपनप्रिया, अन्तराल, महामिलन, मेरौ दरद न जानै कोय, प्रेमचन्द्र की बस्ती और प्रिय मृणाल-एक सप्ताह में पढ़कर जब उन्होंने मुझे बधाई दी तो सच शिवप्रसाद मुझे उनकी रचना के मुकाबले कुछ ज्यादा ही खुशी हुई। मेरी दृष्टि में उनका मान काफी बढ़ गया। इस लगन से तो कोई परीक्षार्थी भी नहीं पढ़ता। ये ही तो कुछ अतिरिक्त मुद्दे हैं मेरी खुशी के लिए। जब कोई बच्चा अपने घरौंदे की प्रशंसा सुनकर खुश होता है तो मैं क्यों नहीं होऊँगा  इस दृष्टि से मैं आज भी एक बच्चा हूँ। अपनी खुशी और नाराजगी का इजहार किये बिना नहीं रह सकता। अपनी भावनाओं को छिपाने की कला में एकदम भोट हूँ। और इस मामले में तुम मुझसे भी गये गुजरे हो।

रामनिवास जी कर्वा के उनमान अतिथि को ईश्वर का प्रतिरूप माँनू-न-माँनू, लेकिन अपने स्तर पर मेहमान की आवभगत में जाने-अंजाने कोई कमी नहीं रहने देता, परिचित हो चाहे अपरिचित। पर उनकी तरह आत्मीय सम्मान देने की क्षमता मुझ में नहीं है। अलबत्ता अन्तरंग मित्रों की बात अलग है। उनके लिए तो सीधा-टेढ़ा सिर भी काट कर रख सकता हूँ। उपासना की अपेक्षा तुम्हारे इसी गुण ने मुझे ज्यादा द्रवित किया है।
अज्ञात पाठक, लेखक व आलोचकों को इस वैयक्तिक उदाहरण से भी बराबर खुशी होगी जो मुझमें और मेरी रचनाओं में अतिरिक्त दिलचस्पी रखते हैं। राजस्थानी की इस कहावत से तुम भी भली-भाँति परिचित हो-गाड़ी धान री मूठी बानगी। गाड़ी अनाज की मुट्ठी बानगी से पूरी गाड़ी के अनाज की पहचान हो जाती है। जिस प्रकार एक ही चावल से पता चल जाता है कि चावल पक गये कि नहीं। अकेले पाठक की अपनी पसन्द होती ही है, लेकिन वह अगणित पाठकों की अभिरुचि का द्योतक अवश्य होता है। किसी भी कृति का पारायण तो अकेले ही करना पड़ता है।

इसी संग्रह की ‘कागमुनि’ कथा का पुनर्लेखन कर रहा था, तब यह सुखद संयोग घटित हुआ-29 अक्टूबर, 1999, शुक्रवार को। दोपहर तीन बजे गाँव के पटवारी श्री मोतीलाल का फोन आया कि जोधपुर के एक अधिकारी मुझसे मिलना चाहते हैं। कार्यालय के पाँच कर्मचारी भी उनके साथ हैं। किसी वक्त भी कोई मुझसे मिलने आये तो मेरे लेखन में तनिक भी व्यवधान उपस्थित नहीं होता। बल्कि खुशी ही होती है। शहरों में तो मिलने-जुलने के अवसर आते ही रहते हैं। पर एकांत गाँव के बाहर के लोग कम ही मिलने आते हैं। शायद ट्रांसफर या प्रमोशन का कोई मसला होगा। मैंने सहज भाव से हामी भर दी। कोई पाँच-सात मिनट बाद ही प्रत्याशित अतिथि कमरे में आ गये। नेवले का संवाद बीच ही में बन्द करके सभी महानुभावों को नमस्कार किया। एक प्रौढ़ अधिकारी ने मेरे पाँव छूने चाहे तो मैं घबराकर पीछे हटा-अरे, अरे  यह क्या कर रहे हैं आप मैं इस योग्य नहीं हूँ। तब उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, ‘सन् 1993 में आपके दर्शन करने आया था। दुर्भाग्य से निराश होना पड़ा। आज मेरी साध पूरी हुई। मेरे लिए परम सौभाग्य का दिन है।’ जब सभी व्यक्ति बैठ गये तो उन्होंने बताया कि ‘रूँख’ को बीस बार आद्योपान्त पढ़ चुके हैं। तुम्हें ही क्या, मुझे भी विश्वास नहीं हुआ रे शिव कि सामने बैठा व्यक्ति सात सौ पृष्ठ का क्लिष्ट पोथा बीस बार पढ़ चुका है  शायद वे बिना मुस्कराये बात नहीं कर सकते या मुझसे मिलने की खुशी आसानी से मिट नहीं रही थी। कहने लगे, ‘मुझे जेन बोध-कथाएँ सबसे अच्छी लगीं। आपकी समीक्षा से उनके मर्म की परतें खुलती ही गयीं।’ इस टिप्पणी के साथ ही उन्होंने दो कथाएँ सुना दीं। इस तरह के पाठक से तो मेरा पहला ही साक्षात्कार था। रूँख से बीस गुना बोझ मेरे माथे पर आ पड़ा। संज्ञाविहीन-सा उनके चेहरे की ओर देखता रहा। वे अपनी रौ में आगे कहने लगे, ‘जगदीशचन्द्र बसु के निबन्ध भी हिन्दी में पहली बार पढ़े। एक-एक वाक्य से ज्ञान-वर्धन हुआ। दोनों के पत्र-व्यवहार से महान् कवि और महान् वैज्ञानिक की आत्मीयता का पता चला। हिन्दी में ऐसी सार्थक सामग्री मैंने कभी नहीं पढ़ी। गुरुदेव की ‘स्त्रीर पत्र’ जैसी कहानी तो विश्व- साहित्य में दुर्लभ है। याज्ञवल्क्य की मैत्रेयी से सम्बन्ध स्थापित करने से कहानी का नया आयाम मिल गया।’ फिर उन्होंने रूँख के कई मार्मिक उद्धरण सुनाए जिन्हें मैं भूल चुका था। जिज्ञासा-वश पूछना जरूरी हो गया कि वे किसी कॉलेज में प्राध्यापक तो नहीं हैं लेकिन अधिकांश प्राध्यापक तो सिर्फ पढ़ाते हैं, पढ़ते कहाँ हैं तब उन्होंने जो कुछ भी बताया मेरे विस्मय की सीमा नहीं रही कि उन्होंने 1970 में फिजिक्स में एम.एस-सी. किया। आठ बरस अध्यापक रहे। दूसरे प्रयास में आर.ए.एस. की परीक्षा पास की। सबसे पहले साँचौर में सहायक कलेक्टर रहे। जोधपुर में अतिरिक्त सम्भागीय आयुक्त के पद पर भी काम किया। आजकल जोधपुर में रेवेन्यू अपीलेंट ऑथोरिटी के मुकदमें निपटा रहे हैं।

फिर मुस्कराहट घुले शब्दों में कहना शुरू किया, ‘सन् 1988 में पहली बार ‘रूँख’ पढ़ा। फिर तो पढ़ता ही गया। ‘बाताँ री फुलवाणी’ के सभी भाग केवल पढ़े ही नहीं, घरवालों को सुनाये भी। उन्हें राजस्थानी पढ़ने की रफत कम है न ’फिर वे कुछ छण तक मुस्कराते रहे। मानो शब्द उनसे असहयोग कर रहे हों या कोई गहरी बात सोच रहे हों। अचानक विस्मय-घुली वाणी में बोले, ‘सबसे पहले नाम बताना चाहिए था, वह तो भूल ही गया-गणपतलाल सुथार। पाठ्यक्रम के अलावा दूसरी किताबें पढ़ने का शौक शुरू से ही था। दसवीं तक शायद ही हिन्दी का लेखक मुझसे छूटा हो  प्रसाद, महादेवी और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी मेरी खास पसन्द के लेखक थे। जिन्हें मैं बार-बार पढ़ता था।’ तत्पश्चात उन्हें बंगाली लेखक पढ़ने का ऐसा चस्का लगा कि पाठ्य-पुस्तकें तो गौंण हो गयीं और बंकिम बाबू, रवि बाबू और शरत बाबू हो गये प्रमुख। खाने के साथ-साथ उन्हें पढ़ते रहते। विदेशी लेखकों में मोपासाँ, ओ. हेनरी, तॉलस्तॉय, गोर्की और थॉमस हार्डी उनके प्रिय लेखक रहे हैं। कार्ल-मार्क्स की ओर झुकाव हुआ तो दो-तीन बरस समाजवादी लेखकों को ही पढ़ते रहे। अब मार्क्स और गाँधी दोनों ही उनके वरेण्य हैं। फिर दीगर लेखकों की चर्चा बंद करके वे अलेखूँ हिटलर, दुविधा, उलझन और बाताँ री फुलवाणी के उद्धरण सुनाते रहे और मैं खुशी में सराबोर होकर सुनता रहा। पाठक की इस लगन से बढ़कर और क्या सम्मान या पारितोषिक हो सकता है रे शिव  बड़े लेखकों की बड़ी बातें मुबारक हों। मेरा मन तो इन छोटी-छोटी बातों से ही बहल जाता है।

उन्हें जोधपुर लौटने की जल्दी थी। भोजन की खूब मनुहार की, पर वे नहीं माने। जब मैंने एक कहानी सुनाने का आग्रह किया तो उसी वक्त सहर्ष हामी भर ली। ‘सपनप्रिया’ उन्होंने पढ़ी नहीं थी। ‘सिकन्दर का कौआ’ पढ़कर सुनायी। सभी सुनकर गदगद हो उठे और मैं उपकृत। मेरे लेखकीय जीवन में ऐसे मौके गिने चुने ही आये हैं। इसलिए इन्हें सँजोकर रखने का मोह संवरण नहीं कर सका। बड़े लेखकों के लिए यह उपहास का विषय हो सकता है। पर मुझे तो इन्हीं बातों से उर्जा मिलती है। अपनी-अपनी समझ और अपना-अपना मोह  और अन्त में उठते-उठते जिस जानकारी से उन्होंने मुझे अवगत कराया उसे सुनकर तो मैं रोमांचित हो उठा कि वे बीकानेर के रहने वाले हैं। और नन्दकिशोर आचार्य के स्थायी मुकाम सुथारों की गवाड़ में ही उनका पुश्तैनी निवास है। इस नाम का हवाला उन्होंने सोच-विचारकर ही दिया होगा। वे जरूर उसकी प्रतिभा के कायल होंगे। अगली बार मिलेंगे तो पूछूँगा।

खुशी का तो एक क्षण ही बहुत लंबा होता है रे शिव, तिस पर गणपतलाल जी सुथार के साथ वह पहली मुलाकात करीब तीन घण्टे तक चली और मैंने स्वयं को उन्मेषित महसूस किया। रामनिवास जी कर्वा और गणपतलाल जी सुथार से तो संयोगवश मेरी मुलाकात हो गयी। ऐसे और भी पचासों पाठक हैं, जिनकी हार्दिक सराहना के पत्र मुझे मिलते रहे हैं। पर ऐसे अज्ञात पाठकों की संख्या भी कम नहीं है, जो मेरी रचनाओं के जबरदस्त मुरीद हैं, जिनकी भनक तक मुझे इस जीवन में नहीं मिल सकेगी। और...और उन पाठकों की प्रशंसा का तो सपना देखना भी मेरे लिए संभव नहीं होगा जो मेरी मृत्यु के बाद भी मुझे याद करते रहेंगे, उन सबके प्रति मैं तहेदिल से आभार प्रकट करना चाहता हूँ, इसलिए कि आज मैं जिन्दा हूँ। कल तो कल ही है, उसका कोई भरोसा नहीं। अन्त में इन कहानियों के बारे में तुझे कुछ संकेत देने की इच्छा हो रही है।...सहसा अखबार की वजह से तनिक व्यवधान उपस्थित हो गया। राजस्थान पत्रिका में पहाड़ी बाला के बलात्कार की मर्मांतक खबर पढ़कर माथा ही भन्ना गया। मन आलोड़ित होकर पछाड़ें खाने लगा। यों नित्यप्रति किसी-न-किसी के प्रति बलात्कार, कहीं न कहीं डकैती, चोरी और हत्याएँ। दुर्घटनाओं की पुनरावृत्ति इन्हीं बर्बर खबरों से अखबार भरे रहते हैं। उदासीन भाव से सभी पढ़ते रहते हैं। पर इस खबर ने मुझे उद्वेलित कर दिया। शायद तुम भी इस दारुण मनःस्थिति से गुजरे होओगे। हजारों-हजार पाठकों का दिल दहल गया होगा। ये पहाड़ी बालाएँ आठ महीने तक परिवार की तमाम व्यस्तताओं के बीच ऊनी कपड़े तैयार करती हैं। नवम्बर के मध्य तक राजस्थान के बड़े शहरों में आम सड़क के किनारे छोटी-छोटी दुकानें सजाती हैं। बच्चों को साथ रखती हैं। इनकी दिलेरी का कोई मुकाबला है  लेकिन अपने से ताकतवर यम के बराबर ... सहस्राब्दी प्रारम्भ होने के अट्ठाईस दिन पूर्व रात के दस बजे एक जीप आती है- नीली बत्ती से झब-झब करती हुई। चील झपट्टा मारकर उस निरीह बाला को ले उड़ती है। जोबनेर की उजाड़ धरती पर तीन हैवान, नहीं-नहीं तीन मनुष्य, तीन आदमी जिन्हें हैवान कहना भी हैवानियत को लांछित करना है—उसके साथ बलात्कार करते हैं। उसकी चीत्कारें, हवा के रेशे-रेशे को विदग्ध कर रही होंगी, पर उन बलात्कारियों को तो उसकी चीत्कारें, उसकी छटपटाहट सुनकर हिंसक आनन्द आ रहा होगा। जन्म की वेला भी वह सुकन्या कें-कें करके रोयी होगी, चिल्लायी होगी। नन्हें हाथ-पाँव मारकर छटपटायी होगी, पर इन दोनों चीत्कारों में कितना अंतर है रे शिव  वह कें-कें का बाल-रव घर वालों के लिए कितना आनन्ददायक था और यह चिल्लाहट कितनी सन्तप्त और कितनी दारुण होगी  न जाने जीवन की किस बाध्यता के वशीभूत रेल की पटरियों के नीचे आत्महत्या न करके पुलिस को सूचित किये बिना जस-तस रेल में बैठकर जयपुर पहुँची। घरवालों को किस तरह अपने मुँह से आप बीती सुनायी होगी, फफक-फफककर रोयी होगी...।

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